रादौर, 4 सितंबर (कुलदीप सैनी) : भारतवर्ष में गुरुओं का सम्मान आज से ही नहीं बल्कि पुरातन काल से ही किया जाता है। गुरु को माता-पिता से भी बढ़कर दर्जा दिया जाता है। गुरु शिष्य परंपरा भारत की संस्कृति का एक अहम व पवित्र हिस्सा है। गुरु शब्द गु और रू दो शब्दों से मिलकर बनता है। गु का अर्थ है अंधकार या अज्ञान और रू शब्द का अर्थ है ज्ञान या प्रकाश। अज्ञान रूपी अंधकार को मिटाने वाला जो ज्ञान रूपी प्रकाश है, वही गुरु है। जीवन में सफल होने के लिए गुरु का मार्गदर्शन मिलना आवश्यक है।
यह शब्द हिंदी प्राध्यापक राकेश पांचाल ने कहे। वह शिक्षक दिवस के उपलक्ष्य में आयोजित एक कार्यक्रम में अपना संबोधन दे रहे थे। उन्होंने कहा कि भारत के पूर्व राष्ट्रपति डा.सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्म दिवस पर 5 सितंबर को शिक्षकों के प्रति सम्मान प्रकट करने के लिए शिक्षक दिवस मनाया जाता है। जीवन में वही लोग सफल होते हैं जो गुरु शिष्य परंपरा को आत्मसात करते हैं। लेकिन बदलते परिवेश में शिक्षा देने वाले गुरु के मायने बदल गए हैं। गुरु अपने विद्यार्थियों के साथ दोस्ताना व्यवहार करने लगे हैं। बदलते परिवेश में गुरु-शिष्य परंपरा तो गौण हो गई है, वहीं टीचर स्टूडेंट के संबंध में भी कहीं न कहीं दरार पड़ने लगी है। आज के भौतिकवादी समाज में ज्ञान को अधिक महत्व दिया जाने लगा है। अध्यापन भी निस्वार्थ नहीं रहकर ,एक व्यवसाय के रूप में नजर आता है। छात्र और शिक्षक का संबंध भी एक उपभोक्ता और सेवा प्रदाता का होता जा रहा है। छात्रों को गुरु से प्राप्त होने वाला ज्ञान, धन से खरीदी जाने वाली वस्तु मात्र बनकर रह गई है। इससे शिष्य की गुरु के प्रति अगाध श्रद्धा और गुरु का छात्रों के प्रति स्नेह और संरक्षक भाव लुप्त होता जा रहा है। आज जरूरत है कि गुरु और शिष्य दोनों अपनी अंतरात्मा में झांके और स्वयं को अनुशासित करें। दोनों को मिलकर गुणवत्ता परक शिक्षा के लिए सेतु के रूप में कार्य करना चाहिए।